विद्याप्रशंसा

अनेकसंशयोच्छेदि परोक्षार्थस्य दर्शकम् ।
सर्वस्य लोचनं शास्त्रं यस्य नास्त्यन्ध एव सः ॥ १ ॥

भावार्थः
अनेक संशयों को छेदन करने वाला तथा परोक्ष अर्थ का भी प्रदर्शक, सब का नेत्र एकमात्र शास्त्र है, जिस के वह नहीं है अवश्य वह अन्धा ही है ॥

अपूर्वः कोऽपि कोशोऽयं विद्येते तव भारति !
व्ययतो वृद्धिमायाति क्षयमायाति संचयात् ॥ २ ॥

भावार्थः
हे भारति । तेरा यह कोश कुछ अपूर्व ही है जो व्यय करने से तो वृद्धि को प्राप्त होता है और सञ्चय से क्षय को प्राप्त होता है ॥

ज्ञातिभिर्वण्ट्यते नैव चौरेणापि न नीयते ।
दाने नैव क्षयं याति विद्यारत्नं महाधनम् ॥ ३ ॥

भावार्थः
जाति के लोग नहीं बांट सकते और न चोर चुरा सकता है, दान करने पर क्षय को प्राप्त नहीं होता, विद्यारत्न ऐसा सर्वोत्तम घन है।

विद्या शस्त्रं च शास्त्रं च द्वे विद्ये प्रतिपत्तये ।
आद्या हास्याय वृद्धत्वे द्वितीयाद्रियते सदा ॥४।।

अर्थ :
विद्या (ज्ञान) और शस्त्र (अस्त्र-शस्त्र का अभ्यास) — ये दोनों ही विद्याएँ प्राप्त करने योग्य हैं।
परन्तु जब मनुष्य वृद्ध (बूढ़ा) हो जाता है, तब पहली विद्या अर्थात् शस्त्रविद्या (हथियार चलाने की विद्या) हँसी का विषय बन जाती है,
परन्तु दूसरी विद्या — शास्त्रविद्या (ज्ञान या शिक्षा) — सदा आदर पाने योग्य रहती है।

वसुमतीपतिना न सरस्वती बलवता रिपुणापि न नीयते । समविभागहरैर्न विभज्यते विबुधबोधबुधैरपि सेव्यते ॥५॥

भावार्थः
राजा विद्या को नहीं ले सकता और न बलवान् शत्रु कदापि छीन सकता है । बराबर के हिस्सेदार बांट नहीं सकते हैं, बल्कि बड़े – बड़े प्रवीण पण्डितों को भी विद्यावान् की सेवा करनी पड़ती है ॥

न चौरहार्यं न च राजहार्यं न भ्रातृभाज्यं न च भारकारि ।
व्यये कृते वर्धत एव नित्यं विद्याधनं सर्वधनप्रधानम् ॥ ६ ॥

भावार्थः
न चोर हरण कर सकता है और न राजा छीन सकता है, भाई बांट नहीं सकते और न ही बोझ है, व्यय करने पर वृद्धि को प्राप्त होता है, ऐसा विद्या धन सभी धनों में श्रेष्ठ है ॥

मातेव रक्षति पितेव हिते नियुङ्क्ते
कान्तेव चाभिरमयत्यपनीय खेदम् ।
लक्ष्मीं तनोति वितनोति च दिक्षु कीर्त्तिम्
किं किं न साधयति कल्पलतेव विद्या ॥ ७ ॥

भावार्थः
जिस प्रकार माता पुत्र की रक्षा करती है, ठीक वैसे ही विद्या रक्षा करती है। पिता जिस प्रकार अपने पुत्र को हित में नियोजित करता है ठीक वैसे ही विद्या हित में लगाती है, कान्ता की भांति खेद को दूर करके आनन्दित करती है, लक्ष्मी को विस्तृत करती है और दिशाओं में कीर्त्ति (यश )को फैलाती है, विद्या कल्पलता की तरह क्या कुछ नहीं कर सकती ?

विद्यानाम नरस्य रूपमधिकं प्रच्छन्नगुप्तं धनम्
विद्या भोगकरी यशः सुखकरी विद्या गुरूणां गुरुः ।
विद्या बन्धुजनो विदेशगमने विद्या परं दैवतम्
विद्या राजसु पूज्यते न हि धनं विद्याविहीनः पशुः ॥ ८॥

भावार्थः
विद्या मनुष्य का उत्कृटरूप है और अन्तर्हित गुप्तधन है, विद्या भोगकरी है और यश और सुख प्रदान करने वाली है, विद्या गुरुओं की भी गुरु है, विद्या विदेश में बन्धु है, विद्या उत्तम गुण वाली है, राजाओं में विद्या ही पूजी जाती है, धन नहीं, विद्या से हीन मनुष्य पशु के समान है ॥

विद्या नाम नरस्य कीर्तिरतुला भाग्यक्षये चाश्रयो
धेनुः कामदुधा रतिश्च विरहे नेत्रं तृतीयं च सा ।
सत्कारायतनं कुलस्य महिमा रत्नैर्विना भूषणं
तस्मादन्यमुपेक्ष्य सर्वविषयं विद्याधिकारं कुरु ॥ ९॥

भावार्थः
यह बात प्रसिद्ध है कि विद्या मनुष्य का अखण्ड यश फैलाने वाली है और भाग्य के क्षीण होने पर आश्रय है, कामनाओं को पूर्ण करने वाली धेनु है, वियोग में रति है और मनुष्य का तीसरा नेत्र है, सत्कार का आयतन और कुल की महिमा है। इसीलिए सम्पूर्ण विषयों की उपेक्षा करके विद्याधिकार करना चाहिये ॥

येषां न विद्या न तपो न दानं, ज्ञानं न शीलं न गुणो न धर्मः।
ते मर्त्यलोके भुवि भारभूताः, मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति ।।१०।।

भावार्थः
जिन मनुष्यों के पास न विद्या है, न तप है, न दान है, न ज्ञान है, न शील (सदाचार) है, न कोई गुण है और न ही धर्म है — ऐसे लोग इस पृथ्वी पर केवल भार (बोझ) मात्र हैं; वे मनुष्य के रूप में पशु ही हैं।

विद्या ददाति विनयं विनयात् याति पात्रताम्।
पात्रत्वाद् धनमाप्नोति धनाद् धर्म ततः सुखम्।।११।।

भावार्थः
विद्या (शिक्षा) मनुष्य को विनम्रता (नम्रता) प्रदान करती है।
विनम्रता से पात्रता (योग्यता) प्राप्त होती है।
पात्रता से धन प्राप्त होता है।
धन से धर्म की प्राप्ति होती है,
और धर्म से अन्त में सुख की प्राप्ति होती है।

साहित्य-संगीत-कलाविहीनः साक्षात्पशुः पुच्छ-विषाणहीन।
तृणं न खादन्नपि जीवमानः तद् भागधेयं परमं पशूनाम् ।।१२।।

भावार्थः
जो व्यक्ति साहित्य, संगीत और कला से रहित है, वह सचमुच बिना पूँछ और सींग वाला पशु ही है।
वह चाहे घास न भी खाए, फिर भी जीवित रहता है — यह तो केवल पशुओं का ही परम भाग्य है।

By Anant

Admin

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